"सिमटता वसंत"

"सिमटता वसंत"

जिस जगह कभी हरियाली थी,
झूमती ऊंची डाली थी।

पीपल, बरगद खूब विशाल,
कुछ थे छोटे पर फलदार।

हवा के झोंके पत्तों संग,
खेलते  ऐसे लड़ते हों जंग।

पथिक बैठ इसकी छाया में,
पाता ठंडक झुलसी काया में।

मधुर स्वर में कोयल काली,
वह गीत सुनाती डाली - डाली।

पौ फटते जगते थे खग सब,
झूम तरू पर करते थे कलरव।

नव कलियों से तरुवर जब सजता,
अलौकिक महक हर दिशा फैलता।

अनुपम छंटा यूं लगता देखकर,
सिमट स्वर्ग उतरा धरा पर।

ऋतुराज वसंत था जब - जब आता,
सज - धज कर वह स्वागत करता।

समय का पहिया ऐसा घूमा,
यूं हुआ कुछ काम अजूबा।

स्वर्ग सा सुंदर बगिया को पल में,
कर दिया नष्ट यह निर्दई नर ने।

सुख, चैन और निज स्वार्थ की मोह में,
 कर रहा विध्वंश उसे, बैठ उसी की गोद में।

कर दिया वीरान छटा धरा का,
है यह न्याय बता कहां का?

समय, ऋतु से हो गया बेमेल,
हो रहा अब, बिन मौसम बरसात का खेल।

रूठ गया "वसंत" ऋतुराज,
कौन मनाए इसको आज।

हरियाली जा पहुंची महलों में,
सिमट वसंत जा दुबका गमलों में।

                  ..जितेंद्र कुमार




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