"नभ के घन"

" नभ के घन "

ये बादल उन्मुक्त गगन के,
उड़ता नभ में नभचर संग।
खग- विहग भी पीछे छूटते,
 जब आता इसमें उमंग।

तपता सूरज जब कभी भी,
जल, वाष्प बन जाता है।
लगती उठने हल्की होकर,
जो बादल कहलाता है।

मंडराता यह आसमान में,
लिए हुए जब काले रूप।
प्यासी धरती इसे बुलाती, 
पर सूरज,चांद सब जाते छुप

सूरज की गर्मी से व्याकुल,
जीवा-जन्तु तब झूम उठे।
दिखती जब बादल की टुकड़ी,
आसमान में घूम रहे।

कहते लोग बरस जा बादल,
जल- बूंद रूप अमृत बरसाओ।
प्यासी धरती तुझे बुलाती,
आओ इसे  तृप्त कर जाओ।

ठंडी हवा से जब ये बादल,
आता है संपर्कों में ।
ऊपर से धरती पे आता,
रूप बदल जल बूंदों में।

कहते लोग इसे ही बारिश,
हो रिमझिम या मूसलाधार।
टकराता भिन्न आवेशों से,
चमकती बिजली , होती आवाज़।

                           जितेंद्र कुमार