" मां "
चारो धाम चरणों में मां के,जग भटके अन्धकार में।
बचपन में आंचल ही मां का,
महफूज़ जगह इस लोक में।
मिले न वह सुख महल - अटारी,
जो सुख मां की गोद में।
हर भूल की दंड क्षमा है,मां के प्रेम दरबार में।
चारो धाम चरणों में मां के,जग भटके अन्धकार में।
दे सहारा उंगली का मां,
बचपन में दौड़ सिखाती है।
होठों के कंपन को भी वह,
भाषा मधुर बताती है।
मां का प्यार पाने को ईश्वर,आए नर अवतार में।
चारो धाम चरणों में मां के,जग भटके अन्धकार में।
हर सुख चैन त्याग कर अपना,
खुश बच्चों को रखती है।
काट पेट खा सुखी रोटी,
हर जिद पूरा करती है।
चुका न पाया ऋण कोई भी,बदले इस उपकार के।
चारो धाम चरणों में मां के,जग भटके अन्धकार में।
मां साक्षात् रूप देवी का,इस नश्वर संसार में।
जितेन्द्र कुमार
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