"मां की बहू"
मां मैं था आंखों का तारा,
फिर क्यों उसके हाथों सौंप दिया।
तेरी ममता से सिंचित मन को,
वह रौद्र रूप से रौंद दिया।
बचपन में मां पूछ - पूछकर,
जो छप्पन भोग बनाती थी।
पसंद की तो बात दूर, आज,
नहीं मिलती पकी दो रोटी भी।
मेंहदी,रंग लगाकर वह,
सकल परिधानों में सजती है।
पसंद उसे बाहर का खाना,
रसोईघर जाने से डरती है।
धर्म का कोई अंश नहीं है,
क्या पूजा - पाठ करेगी वो?
बचपन से जो कलम से खेली,
क्या तेरी भावों को पढ़ेगी वो?
अच्छा था मां उसको घर लाती,
कर सेवा तेरी चरण रज पीती।
मिलता मान मुझे आजीवन,
पूज पति को परमेश्वर कहती।
..जितेंद्र कुमार
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