"भ्रष्टाचार"
मैंने पूछा भ्रष्टाचार से,
है क्या चीज तू ? कहां ठिकाना?
मंद मुस्कान मुस्कुराकर बोला,
मुझसे परेशान, मुझे न पहचाना।
मानवता मेरा भोजन है,
पतित मन मेरा है निवास।
खादी,खाकी, काला कोट सब,
पसंद के मेरे हैं लिबास।
गिरती जब मानवता मन से,
मैं प्रबल हो जाता हूं।
वह विचार जो पोषण करता,
उसे भ्रष्ट पथ दिखलाता हूं।
पैसों की लालच में आकर,
भूल जाता मानवता को।
जन - जन को है कष्ट पहुंचाता,
कर दुरुपयोग वह सत्ता को।
त्रस्त है मुझसे सारा देश,
लोग ग्रसित दुष्प्रभाव से।
कानून उन्मूलन कर नहीं सकता,
मैं डरता हूं स्वच्छ विचार से।
..जितेंद्र कुमार
1 Comments
Good efforts sir ji
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