"भटकता समाज"
सुन,समझकर,गौर करिए, एक मेरी बात अनमोल है।
प्यासा पास में टूटी रस्सी, डूबा कुआं में डोल है।
हर समाज का बच्चा-बच्चा,
शहर लिप्त है बिल्कुल।
पराग तिरंगा ऐसे खाए,
जैसे कोई बिस्कुट।
एक नजर जरा उसको देखें, बैठा है कब्र खोद के।
सुन,समझकर,गौर करिए, एक मेरी बात अनमोल है।
देख जमावड़ा जा छुप कर बैठे,
चुपके निकाले पुड़िया।
बढ़ते चिलम झपट कर पकड़े,
कितना भी रहे दूरियां।
मुंह लगा दम कसकर खींचे, हर हर शंकर बोल के।
सुन,समझकर,गौर करिए, एक मेरी बात अनमोल है।
भांग बीड़ी तो आम बात है,
पिए चुटकी बजाए।
क्या हानि ये समझे नहीं,
धुआं कलेजा जलाए।
मेरी बात मजाक न लीजिए, सुनिए कान खोल के।
सुन,समझकर,गौर करिए, एक मेरी बात अनमोल है।
बड़े- बूढ़ों को मिले नहीं आदर,
उनसे करें गलत व्यवहार।
शिक्षा की तो बात दूर है,
बचा नहीं शिष्टाचार।
गलती कहां जरा पूछिए खुद से, अपना दिल टटोल के।
सुन,समझकर,गौर करिए, एक मेरी बात अनमोल है।
..जितेंद्र कुमार
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