"काक भुसुंड जी"

" काक भुसूंड जी "

रोज आज भी काक भुसुंड जी,
छत, मुंडेर पर आते हैं।
दे दो कुछ मुझे दाना–पानी,
यह शायद कह चिल्लाते हैं।

रहता था कभी सजा मुंडेर भी,
हलुआ और चपाती से।
पर क्यों रहता खाली आजकल?
आपस में  पूछते साथी से।

होकर फिर मायूस वो बोले,
ज्यादा कुछ नहीं मांगूंगा।
नहीं चाहिए मेवा मिठाई,
बस सुखी रोटी खा लूंगा।

सुबह, दोपहर, शाम कभी भी,
आ जाते कुछ वे खाने को।
बंद देख दरवाजे पे बोलते,
मीठी बोल मनाने को।

थकी जुवान जब बोल बोलकर,
लगे सोचने,हमसे कोई रूठा है।
या फिर शायद नींद– थकान से,
सो रहा कोई भूखा है।
   
             जितेंद्र कुमार



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