"मानव और प्रकृति बीच युद्ध"


"मानव और प्रकृति बीच युद्ध"

"मानव और प्रकृति बीच युद्ध"


छिड़ा युद्ध मानव और प्रकृति में, 
जंगल जा दुबका कोने में, 
कर प्रण नर निर्दयी धरा को, 
लगा वृक्ष - विहीन करने में।

सुन कानन की करुण पुकार, 
सूर्य नक्षत्र सब युद्ध को तैयार। 
मुश्किल में अब जीवों का जीवन, 
जो रुका नहीं यह अत्याचार।

देख प्रकृति की दुर्दशा, 
कुपित हो रहा खगोल भूगोल। 
सौंपकर जीवन, मृत्यु के हाथ, 
चुकाना होगा इसका मोल।

सूर्य भी अब क्रोधित होकर, 
वर्षा रहा प्रचंड अनल। 
नष्ट करने को आतुर है यह, 
इस धरा पर जीवन सकल।

भर हुंकार टूट पड़ा, तूफान रूप ले, 
बहता था कभी जो मंद पवन। 
मानो, छत -विछत करके पल में, 
साथ उड़ा ले जाएगा कण - कण।

हिमनद भी अब पिघल रही, 
आयेगी लेकर यह प्रलय रूप। 
बढ़ चली डुबोने धरती को, 
होगी परिस्थिति जीवन प्रतिकूल।

बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि सब, 
प्रकृति का है यह हथियार। 
संकेत दे रही विकट समय का, 
अब  भी जागो करो सुधार।

मौन मानव सह रहा सब कुछ, 
दिखा रहा अपने को पाक।
पर इसके जो कर्म रहे हैं, 
यह कर न सकेगा अपने को माफ।
                       ..जितेंद्र कुमार

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